मन मे एक बार, आया एक विचार, यूँही न जाने कहा से
कि लिख दूँ अपनी भावनाओ को शब्दो से सजा कर, एक कागज पर
बस इसी उदेदश्य से पहले तो अपनी भावनाओ से करने के लिये साक्षात्कार
झांका जैसे ही ह्र्दय मे, दिखा एक भावनाओ का एक उलझा हुआ संसार
जिसमे बसे थे, या यूँ कहिये की उलझे हुये पडे थे, मेरे ह्र्दय के उत्पाद
जिनको सजोने के लिये, शब्दो की माला मे पिरोने के लिये, मै था बेताब
परंतु शायद मुझमे नही था इतना आत्मविश्वास, कि मै उस उलझे हुये
संसार से अलग कर पाऊँगा, तुम्हारे लिये अपनी भावनाये
हो सके तो कभी झांक कर, मेरे इस ह्र्दय मे बसे उलझे हुऐ संसार मे
करो प्रयास इस उलझे मन को सुलझाने का
परंतु जब नही अपने पर ही विश्वास, तो ऐसे मे किसी से करना ये आस
कि कभी तो वो आयेगा , मेरे उलझे मन को सुलझायेगा
क्या ऐसी आस सही है?
पर ये सब तो भविष्य की बाते है, वर्तमान मे तो मै हूँ और मेरे साथ है सिर्फ
मेरे ह्र्दय मे बसा एक उलझा हुआ संसार और जो कि है, सिर्फ उलझा हुआ