कल शाम ढले, जब लगा लौटने
सूरज भी, अपने घर की ओर
उसकी मधम रोशनी से, जग लाल हुआ चहुँ ओर
उस पल हमने भी, अपने मन को
जगाया, और समझाया
चल तू भी चल, अब दिन भर कितना
भटक लिया, इस जग मे
कभी तो चाहा, आग को छूना
कभी डुबोया सागर मे
पर जला है हर पल – हर दिन
चाहे हो थल, या फिर हो जल मे
जैसे ये सूरज थक कर, ढलता हर शाम
और गुम जाता, दूर क्षितिज मे
चल मै भी उसके साथ
उस पिघलती, लाल रोशनी मे
बस गुम हो जाता हूँ