बादलो की परछाईयो को पकडने की चाह मे
चल पडा मै उठ के यूहीँ, एक अंजानी सी राह मे
सोचा न एक पल भी, कि कैसी ये चाह है
जिसकी न मंजिल, ये कैसी वो राह है
पानी की बूँदो को समेटने का प्रयास है
भीगे तो हाथ ही, उन बूँदो के खेल मे
फिर आँखो मे कैसा ये, नमी का एहसास है
खोला है बँधन अरमानो का, बस एक बार
उडने से लग पडे सब, जो थे कभी एक साथ
फिर क्या समेटू उन सबको मै बार-बार
क्यूँ कैद रखूँ मै, मन के पिंजरे मे आज
पर यूहीँ भटकते रहे गर वो दर-बदर
तो उनको मिलेगा क्या, कभी बदलो का साथ