कभी वो चित्र आँखो के सामने फिर से प्रकट होता
वो चित्र जिसे कई बार मन की दीवारो पर अपनी आशाओ के
रंगो से बनाया था, कभी अकेले और कभी किसी के साथ मिल कर
फिर कुछ कही और अनकही बातो से सजाया था
वो सारी कल्पनाये जिनको जीने का स्वप्न
तोड दिया हर बार यह सोच कर,
कि बस कल्पनाओ मे ही रहने दो इस चित्र को
शायद ये चित्र, इस दुनिया के कठोर सत्य का सामना न कर पाये
मेरे ह्रदय मे बसे इस स्वप्न मे, वास्तविक्ता का विष न घुल जाये
वो वास्तविक्ता जिसकी ओर हर पल मुझे धकेल रही है
कुछ वेदनाये, कुछ स्वभाविक्ताये
हर पल धूमिल करती, उस चित्र पट्ल को,
वॅतमान और भूत के समीकरणो से हारती हुई भविष्य की संभावनाये